अब लौटते हैं सत्यपाल सिंह के सवाल पर कि अगर ”मनुष्य बंदरों की औलाद है तो आज तक किसी ने वानरों को मनुष्य बनते क्यों नहीं देखा वगैरह ………..| वास्तव में डार्विन या उद्विकास के सिद्धांत के विरुद्ध यह सवाल बार-बार उठाया जाता रहा है और बार-बार इसका सटीक उत्तर भी दिया जाता रहा है। डार्विन ने यह कहीं नहीं कहा कि मनुष्य आधुनिक वानरों के वंशज हैं उन्होंने बस इतना स्थापित किया कि “आधुनिक प्रकार के वानरों और मनुष्यों के पूर्वज एक ही प्रकार के जीव थे जिन्होंने भिन्न-भिन्न परिस्थितियों में उद्विकास के भिन्न-भिन्न रास्ते चुने ….जिस प्रकार वृक्ष की एक शाखा दो या तीन शाखाओं में बँट जाती है उसी प्रकार मनुष्य और आधुनिक वानरों के साझा पूर्वजों ने भिन्न भिन्न परिस्थितियों में भिन्न भिन्न रूप ग्रहण किया”।
ये समझना कि, जीव जगत( जंतु ,पादप )अपने वातावरण से गहरे तौर पर जुड़े होते हैं आज किसी भी सामान्य शिक्षित व्यक्ति के लिए अजूबा नहीं है। नागफनी जैसे पौधे और बबूल जैसे पेड़ गर्म शुष्क इलाकों में ही पनप सकते हैं तो घने सदाबहार वर्षा वन 250 सेंटीमीटर से ऊंचे वर्षा वाले इलाकों में।
भारत में कभी भी अच्छी नस्ल के घोड़े विकसित नहीं हो पाए , क्यों ?क्योंकि घोड़े जैसे जीवधारियों के विकास के लिए शुष्क घास के मैदानों का होना जो थोड़े सख्त भी हो बहुत आवश्यक है। मानसूनी वर्षा वाले इस दलदली इलाके में अच्छी नस्ल के घोड़ों का विकास होना भी तो मुश्किल था।
हाल की खोजों ने ये दावा किया है कि ऊँट और हाथी के पूर्वज साझा थे ।प्राकृतिक वातावरण में बदलाव के साथ गर्म शुष्क रेगिस्तान में इस साझे पूर्वजों की एक शाखा उँट में बदली तो दलदली वन क्षेत्रों में दूसरी शाखा हाथियों में बदल गई प्राकृतिक वातावरण और उसमें पोषित जीवो के बीच के संबंध को उद् विकास का सिद्धांत खोल के रख देता है। प्राकृतिक वातावरण उसमें पनपने वाले जीवधारियों के मध्य के अन्योन्याश्रित संबंधों की सुसंगत व्याख्या डार्विन करने में सफल हुए ।बदलते प्राकृतिक वातावरण के साथ ‘जीवन ‘को भी अपने अस्तित्व को बनाए रखने और आगे बढ़ने के लिए खुद भी बदलना पड़ता है। बदलते परिवेश के साथ जीवन की यही तारतम्यता जीव जगत के भिन्न-भिन्न रूपों का कारण है।
बदलते हुए परिवेश के साथ ‘जीवन’ के समक्ष मात्र दो विकल्प होते हैं ,पहला या तो जीवधारी परिवेश के साथ खुद बदल जाए और नए जीवधारियों का रूप ले ले या दूसरा विकल्प खुद को बिना बदले नष्ट हो जाने दे ,लेकिन दोनों परिस्थितियों में एक बात तय है और वह है बदलता वातावरण अपने अनुकूल ‘नए प्रकार के जीवन’ को गढ़ेगा और पुराने का अस्तित्व नहीं रहेगा। वो या तो नष्ट हो जाएगा या बदल जाएगा।
गैलेपगोस द्विप की अपनी खोजों में डार्विन ने पाया कि अलग-अलग द्विपों पर पाई जाने वाली फिंच पक्षियों की चोंच की बनावट अलग-अलग है। जिस द्वीप पर उनके खाने के लिए कठोर बीज है वहाँ उनकी चोंच छोटी और सख्त है, लेकिन जिस द्विप पर उनके लिए फूलों की संख्या बहुतायत है वहाँ उनकी चोंच नुकीली और कोमल है ।एक ही प्रजाति की चिड़िया फिंच के चोंच का ये फर्क जो अपने खाद्य पदार्थ के हिसाब से अनुकूलित थी,उद् विकास को तथ्यात्मक आधार देती थी।
सारे कशेरुकी जंतुओं के भ्रूण के विकास की समानतायें उद्विकास के वैज्ञानिक प्रमाण के लिए डार्विन ने चिन्हित किया था पर्यावरणीय परिवेश और उसमें उपस्थित जीव जगत अपनी प्रकृति की पहचान एक दूसरे में कराते हैं। पोलर बीयर( ध्रुवीय भालू )के घने, सफेद बालों को देख कर कोई भी बता सकता है कि ये किसी ठंडे बर्फीले इलाके का भालू है ,तो दूसरी ओर भैंस को देखकर ये बताया जा सकता है कि यह जंगली, गर्म और दलदली इलाके में ही निवास करती होंगी। दूसरी ओर घने सदाबहार जंगलों को देखकर कोई भी ये बता सकता है कि यहाँ तेज और दूर तक भागने वाले स्तनपायी जीवों का अस्तित्व नहीं हो सकता।
इन्हीं वजहों से डार्विन ने ये कहा करते थे कि “तुम कैसा भी जंतु मेरे सामने लाओं मैं उसको देखकर उसके प्राकृतिक परिवेश के बारे में ठीक-ठीक बता दूँगा जहाँ ये जानवर निवास करता है।”
या फिर मुझे प्राकृतिक परिवेश के बारे में ब्योरा दो तो मैं ये बता दूगा कि वहाँ किस तरह के जीव पाये जाते होगें।”
क्रमशः
Part -2
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