शिक्षक दिवस -बाजार होती शिक्षा व्यवस्था में शिक्षक –
पूरा देश ५ सितम्बर के दिन शिक्षक दिवस मनाता है | सोशल मीडिया के आने के बाद बधाईओं और चित्रों , सेल्फियां की भरमार लग जाती है | तथा तरह – तरह के पुरस्कार और भाषण -भीषण भी खूब होता है | इस सारे शोर -शराबे के बीच शिक्षकों और शिक्षा व्यवस्था से मौजूं कुछ जरुरी प्रश्न रह ही जाते है |इन सारी अच्छी -अच्छी और बड़ी -बड़ी बातों के बीच जनमानस की दृष्टि को सामान रूप में छात्रों की दृष्टि को विशेष रूप धुंधला कर दिया जाता है | शिक्षक इस शिक्षा व्यवस्था का अंग है | और शिक्षा व्यवस्था इस पूरी व्यवस्था ( सिस्टम ) का एक हिस्सा है | इस पहलु की ओर हमारा ध्यान जाने ही नही दिया जाता |आधुनिक दुनिया में जिस तरह हर चीज बाजार के घेरे में आ चुकी है तो शिक्षा व्यवस्था भी कोई अपवाद नहीं | दोहरी शिक्षा प्रणाली इसका जीता -जागता स्वरूप है |१२ वी तक बाजार का नंगा नाच ही चलता है | जैसा पैसा -वैसी शिक्षा बाकी सरकारी स्कूल जैसे -तैसे औपचारिक शिक्षा की जरूरतों को पूरा करने के लिए , गरीबों के लिए एक साधन मात्र रह गए है |
उच्चतर शिक्षा की स्थति तो और भी दिलचस्प है | यहाँ सारे ख्यात गुणवत्ता पूर्ण सस्थान सरकार दवरा पोषित है |लेकिन उसमे पढ़ने वाले छात्र धनड्या वर्गों से आते है | ख्यात विश्व विधालय डी.यू , जे .न यू , IIT , आईआईएम वैगरह इनमे आते है | तीक्ष्ण प्रतिस्पर्धी अंग्रेजी का बोलबाला इन्हे इलीट इंस्टीटूट्स का दर्जा देता है |जिसमे समाज का इलीट तबका पढता है | बस समानता ये है की गुडवत्ता पूर्ण शिक्षा चाहे वो १२ वी तक निजी विद्यालयों में हो या १२ वी के government फंडेड इलीट इंस्टीटूशन में हो अधिकांशतः समाज का वही तबका जा सकता है जिसके पास पैसा है |
बाजार की शिक्षा के नियामक के रूप में या कहे की निर्धारक के रूप में उभरना शिक्षण पद्धति को भी बोझिल और बंजर बना देता है | शिक्षण पद्धति ‘ प्रबोधन ( enlightenment ) पर जोर देने के बजाय कौशल ( स्किल ) पर ज्यादा जोर देने लगती है |विचार की गहराई और व्यापकता के बजाय इसका जोर सीमित अर्थों में उत्पादकता ( प्रोडक्टिविटी ) पर आधारित होता जाता है | विज्ञानं के बजाय तकनीकी ( टेक्नोलॉजी ) ज्यादा महत्वपूर्ण होती जाती है |
स्किल प्रोडक्टविटी और टेक्नोलॉजी वैगरह की बाजार में मांग इनकी शिक्षा में मांग का आधार बनती है |हालाँकि समाज के विकास में इनकी योगदान के महत्व को नाकारा नही जा सकता या इसकी कल्पना भी नही की जा सकती की बिना इनके समाज का विकास भी हो पायेगा| लेकिन मात्र स्किल , प्रोडक्टविटी और टेक्नोलॉजी से लैस तो रोबोट भी होता है | या जिसे आजकल के शब्दों में कहे तो आर्टिफीसियल इंटेलिजेंस कहते है |
शिक्षा का उद्देश्य मनुष्य को मात्र कौशल युक्त बनाना ही नहीं होता है बल्कि वैज्ञानिक सोच -विचार प्रबोधन , जिज्ञासा , सवाल उठाने की क्षमता का विकास के साथ -साथ विचारों की गहराई और व्यापकता लाना भी होता है |
पूंजी की हुकूमत वाली बाजार व्यवस्था वैज्ञानिक और तार्किक विचार प्रक्रिया को मात्र उतना ही स्थान देती है जितने में की उसे ज्यादा से ज्यादा लाभ हो | फायदे की ये अवधारणा पुरे समाज पर हावी होती जाती है | प्रेमचंद्र के गोदान को पढ़के क्या फायदा ? इतिहास की वैज्ञानिक समझ से हमे क्या हासिल होगा ? क्या करेंगे समाज के बारे में जानकर ? वगैरह -वैगरह |
मानाकि ज्यादतर विषय जिनका अध्ययन भी किया जाता है वो अध्ययन इस दुनिया समाज के लिए नही किया जाता उतना किसी नौकरी को पाने के लिए या सिविल सर्विस में अपना स्थान पक्का करने के लिए किया जाता है | आज के दौर में टालस्टाय के उपन्यासों , ब्रेख्त के नाटकों , नाजिम हिकमत की कविताओं के लिए कोई बाजार नहीं बचा है | जो आधी -अधूरी , टूटी -फूटी , सीमित , अधकचरी और रटने पे आधारित शिक्षा व्यवस्था है | उससे ये उम्मीद करना कि वैज्ञानिक चेतना से लैस उत्तरोत्तर विकसित होता हुआ समाज बनायेंगी, दिवास्थ ही होगा |
इन्ही परिस्थितिओं में हमे ‘शिक्षकों ‘ को भी देखना होगा | जहा तक एक सरकारी अध्यापकों का सवाल है| तो जिस तरह बाकी सरकारी कर्मचारी के लिए उनका काम नौकरी करना या ड्यूटी बजाना होता है |तो शिक्षकों को उससे अलग कैसे किया जाये | हमारे मुल्क में ‘शिक्षक’ बनने कि चाहत लेकर बहुत कम लोग शिक्षक बनते है|बहुलांश आबादी तो सरकारी नौकरी के रूप में शिक्षक बनना आखरी विकल्प के रूप में देखते है |इसमें उनको भी दोष नही दिया जा सकता वास्तव में परिस्थति ही ऐसी है |
अभी आल में उत्तर प्रदेश सरकार ने ” प्रेरणा ऐप ” लागु करने की बात कर इस बात पर अपनी मुहर भी लगा दी है |उत्तर प्रदेश सरकार अब प्राथमिक अध्यापकों से डंडे और निगरानी के जोर पे नौकरी करवाने पर तुली हुई है | यहाँ भी एक दिलचस्प स्थिति है कि सरकारे जितना प्राथमिक शिक्षकों को हाँकने पर तुली होती है | उसका दशमांश भी डिग्री कॉलेज वैगरह के अध्यापन पर गुणवत्ता पर ध्यान नहीं देती है |
कम वेतन देने वाले निजी स्कूलों के अध्यापकों पर तो दोहरी मार पड़ती है | एक ओर तो वो शोषितों की स्तिथि में पहुंच जाते है |तो दूसरी ओर प्रयोगधर्मिता , नवाचार और जीवेतता का कोई स्थान इनके अधयापन के क्षेत्र में नही रहने दिया जाता | बने -बनाये पैटर्न पे काम करना होता है |
सांस्कृतिक कार्यक्रमों का अर्थ होता है बॉलीवुड गाने पर किराये की ड्रेस पहन कर बच्चों को डांस करा देना | प्रोजेक्ट्स का मतलब होता है जैसे -तैसे कॉपी -पेस्ट करके झंझट दूर करना और कक्षाएं वो होती है| जिसमे शिक्षक और छात्र दोनों इस इन्तजार में बैठे होते है की ये कब ख़त्म होंगी ?
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